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लेखनी प्रतियोगिता -12-Apr-2023 ययाति और देवयानी

भाग 50 
किस्मत के खेल भी बड़े निराले होते हैं । मनुष्य क्या सोचता है और हो क्या जाता है । वह आगामी दसियों वर्षों की योजना बनाता है किन्तु अगले ही पल एक भूकंप में उसका वर्तमान और भविष्य दोनों नष्ट हो जाते हैं । उसकी सारी योजनाऐं धरी की धरी रह जाती हैं । 

देवयानी कितने विश्वास के साथ वन भ्रमण हेतु शुक्राचार्य के साथ गई थी कि वह कच का पूरा ध्यान रखेगी, उसकी सुरक्षा करेगी । परन्तु होनी को कुछ और ही होना था । देवयानी ने जिसकी कल्पना भी नहीं की , वह हो गया था । स्वयं को व्यक्ति जब परिस्थितियों के सम्मुख असहाय , विवश पाता है तब वह रुदन आरंभ कर देता है क्योंकि परिस्थितियों पर उसका कोई नियंत्रण नहीं है और उस विकट समस्या से बाहर निकलने का कोई मार्ग उसे सूझता नहीं है तो वह एक ही कार्य पूरे मनोयोग से कर सकता है । और वह कार्य है रुदन । इसलिए कच को आश्रम में न पाकर विवश देवयानी रुदन करने लगी । 
"तात्, कच नहीं आया है अभी तक ! मुझे आशंका हो रही है कि कहीं दैत्य सैनिकों ने उसके साथ फिर से कुछ अनर्थ न कर दिया हो ? "ध्यान योग" से देखकर बताओ पिता श्री कि कच कुशल तो है न" ? देवयानी शुक्राचार्य के कंधे पकड़कर बोली । 

देवयानी शुक्राचार्य की सबसे बड़ी कमजोरी थी । वे देवयानी की कोई भी बात टालने का साहस नहीं कर पाते थे । प्रेम की शक्ति अपार है किन्तु प्रेम की अधिकता भी मनुष्य की सबसे बड़ी कमजोरी बन जाती है । देवयानी शुक्राचार्य की कमजोरी थी । शुक्राचार्य देवयानी की बात मानकर "ध्यान योग" में निमग्न हो गये । जब उनकी आंखें खुली तो उनके चेहरे का रंग उड़ा हुआ था । उनका भय से पीला हुआ चेहरा देखकर देवयानी बहुत भयभीत हो गई । उसके हाथ पांव फूल गये और किसी अनिष्ट की आशंका से वह थर थर कांपने लगी । 
"क्या हुआ तात् ? आप चुप क्यों हैं ? कच सकुशल तो है ना ? कहां है वह अभी" ? देवयानी के प्रश्न समाप्त होने का नाम ही नहीं ले रहे थे । शुक्राचार्य मौन साधे हुए शांत दिखने की चेष्टा करते हुए अपने स्थान पर बैठे रहे । इससे देवयानी और अधिक डर गई । वह शुक्राचार्य से लिपटते हुए बोली 

"इस तरह शांत रहकर मुझे भयभीत क्यों कर रहे हैं पिता श्री ? मुझे आप भी बहुत भयभीत लग रहे हैं , क्या कारण है तात् , कुछ तो बोलिए ? आपका यह मौन मेरे प्राणों का शत्रु बन गया है । यदि आप ऐसे ही मौन धारण कर बैठे रहे तो मैं अभी माता सती की तरह अग्नि प्रज्ज्वलित कर अपनी देह को भस्म कर दूंगी" ? 

देवयानी की भीषण प्रतिज्ञा से शुक्राचार्य दहल गए । वे तुरंत बोल उठे "ऐसा कदापि ना करना पुत्री , कदापि नहीं । तुम्हारी माता के जाने के बाद तुम ही तो मेरा एकमात्र सहारा हो और यदि तुमने भी आत्मोत्सर्ग कर लिया तो मैं भी जीवित रहकर क्या करूंगा ? स्थिति बहुत भयावह बन गई है देव , वह मेरे नियंत्रण से परे की हो गई है" । शुक्राचार्य बहुत भारी मन से बोले । 
"ऐसा क्या हो गया है तात् जो आपके नियंत्रण से परे हो ? क्या कच बिना बताए ही देवलोक चला गया है" ? देवयानी को ऐसा लगा । 
"नहीं पुत्री , कच देवलोक तो नहीं गया है पर वह ऐसी जगह चला गया है जहां से अब वापिस नहीं आ सकता है" । 
"ऐसी कौन सी जगह है पिता श्री , जहां से कच वापिस नहीं आ सकता है" ? देवयानी ने आश्चर्य से पूछा । 
"ऐसी एक ही जगह है पुत्री जहां से कच वापिस नहीं आ सकता है । और वह जगह है मेरा उदर " । 
"आपका उदर ? मैं कुछ समझी नहीं तात" ? 
"ठहरो, मैं समझाता हूं । वन भ्रमण के दौरान कुछ दैत्य सैनिक और गुप्तचर शिष्य का वेश बनाकर मेरे शिष्यों के साथ घुलमिल गये । वे कच को बहला फुसलाकर कहीं दूर ले गये और उन्होंने वहां कच का वध कर दिया और उसकी देह को जला दिया । फिर उन्होंने कच की भस्म को एक सुरा पात्र में भर दिया और उसे सुरा से पूरा भर दिया । उन दुष्टों ने वह समस्त सुरा मुझे पिला दी इसलिए कच अब मेरे उदर में बैठा हुआ अपना वार्तालाप सुन रहा है" । शुक्राचार्य के माथे पर चिंता की गहरी लकीरें उभर आईं थीं । 

शुक्राचार्य की बातें देवयानी के गले से नीचे नहीं उतर रही थीं । वह तो कच पर पूरा ध्यान रख रही थी फिर दुष्ट दैत्यों ने यह अनर्थ कब कर दिया ? संभवत: पिता श्री को कुछ भ्रम हुआ होगा क्योंकि वैसा तो हो ही नहीं सकता है जैसा पिता श्री कह रहे हैं । 
"यह असंभव है तात ! मैं लगातार कच पर निगाह रख रही थी । मैंने उसे आश्रम तक आते हुए भी देखा था" ! देवयानी को यकीन ही नहीं हो रहा था । 
"मैं सत्य कह रहा हूं पुत्री, ऐसा ही हुआ है । तुम जिसे कच समझकर जिसकी निगरानी कर रही थी वह कच वेशधारी एक दैत्य था । उन्होंने तुम्हें चकमा दिया है पुत्री" । निराश स्वर में शुक्राचार्य बोले । 

देवयानी को शुक्राचार्य की बातों पर विश्वास नहीं हो रहा था परन्तु जब ये बात शुक्राचार्य कह रहे हैं तो उसे विश्वास तो करना ही पड़ेगा । इसके अतिरिक्त उन दुष्ट दैत्यों ने जो भी अनर्थ कर दिया है उसे भी ठीक तो करना ही पड़ेगा ना ? "मैं कुछ नहीं जानती पिता श्री, मुझे तो कच जीवित चाहिए ! आज और अभी । इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं, बस" । देवयानी झुंझलाकर बोली । 

"लेकिन यह कैसे संभव है पुत्री ? कच मेरे उदर में बैठा हुआ है । यदि मैं उसे जीवित कर दूंगा तो वह मेरा उदर फाड़कर बाहर आ जायेगा और मेरी मृत्यु हो जायेगी । कच तो जीवित हो जायेगा किन्तु मेरी मृत्यु निश्चित है । अब तुम्ही बताओ कि मैं क्या करूं ? हम दोनों में से एक ही व्यक्ति जीवित रह सकता है या तो कच या मैं । अब तुम ही निर्णय कर लो कि हम दोनों में से तुम किसे जीवित देखना चाहती हो" । शुक्राचार्य विवश होकर बोले । 

देवयानी पर तो कच का प्रेम इस सीमा तक चढा हुआ था कि वह कच के सिवाय कुछ देखती ही नहीं थी किन्तु वह कच के लिए अपने पिता को खोना भी नहीं चाहती थी । पिता या प्रेमी, कोई एक, यही धर्मसंकट कहलाता है । ऐसी परिस्थिति किसी के भी जीवन में नहीं आये जैसी देवयानी के जीवन में आ गई थी । वह बोली "मैं तो आप दोनों को ही चाहती हूं तात् । आप मेरे पिता हैं और कच मेरा प्रेम है । किसी एक के बिना मेरा हृदय तृप्त कैसे हो सकता है ? इसलिए कोई ऐसा यत्न कीजिए तात् कि कच भी जीवित हो जाये और आपको भी कोई हानि न हो" । देवयानी ने समाधान सुझाने की कोशिश की । 

बहुत सोच विचार के पश्चात शुक्राचार्य बोले "एक उपाय है पुत्री जिससे कच भी जीवित हो सकता है और मैं भी जीवित रह सकता हूं । 
"वह क्या उपाय है पिता श्री ? उसे शीघ्र कीजिए न, अब देर कैसी" ? देवयानी आशा से झूमने लगी । 
"वह यह है कि मैं पहले मेरे उदर में बैठे कच को मृत संजीवनी विद्या सिखाऊं । उसके बाद मैं उसे जीवित करूं । फिर कच मुझे मृत संजीवनी विद्या के प्रयोग से जीवित कर दे । अब यही एकमात्र उपाय है जिससे हम दोनों जीवित रह सकते हैं" । 
"तो फिर कच को मृत संजीवनी विद्या सिखाइये तात् , देर न कीजिए" । 

शुक्राचार्य ध्यान मुद्रा में बैठ गये और वे शंकर भगवान की स्तुति करने लगे । शंकर भगवान से उन्होंने मृत संजीवनी विद्या कच को सिखाने की अनुमति मांगी । शंकर भगवान शुक्राचार्य से प्रसन्न हो गये और उन्होंने इसकी अनुमति दे दी । तत्पश्चात शुक्राचार्य ने कच से कहा "वत्स, मैं तुम्हें मृत संजीवनी विद्या सिखाने जा रहा हूं । जब तुम ये विद्या सीख जाओगे तब मैं तुम्हें जीवित कर दूंगा । तुम्हारे जीवित होने से मेरी मृत्यु हो जायेगी तब तुम मृत संजीवनी विद्या से मुझे जीवित कर देना । ठीक है, समझ गये ना" ? शुक्राचार्य ने उदरस्थ कच से पूछा तो कच ने कह दिया कि वह ऐसा ही करेगा । 

शुक्राचार्य कच को मृत संजीवनी विद्या सिखाने लगे । जब कच ने मृत संजीवनी विद्या सीख ली तब शुक्राचार्य ने उससे पूछा कि उसने क्या मृत संजीवनी विद्या सीख ली है ? कच ने स्वीकार कर लिया कि उसने मृत संजीवनी विद्या सीख ली है तो शुक्राचार्य ने कच को जीवित कर दिया । कच शुक्राचार्य का उदर फाड़कर बाहर आ गया और शुक्राचार्य की मृत्यु हो गई । शुक्राचार्य का उदर विदीर्ण हो चुका था और भूमि पर उनका रक्त फैल गया था । वे लुढ़क कर भूमि पर गिर पड़े थे । यह हृदय विदारक दृश्य देखकर देवयानी भय से थर थर कांपने लगी तब कच ने उसे धीरज बंधते हुए कहा 
"शोक मत करो यानी । यह समय भयभीत होने का नहीं अपितु धैर्य रखने का है । जब मनुष्य पर विपत्तियां आती हैं तभी धैर्य, साहस और मित्रता की पहचान होती है । मुझ पर विश्वास रखो । मैं अभी मृत संजीवनी विद्या से आचार्य को जीवित कर दूंगा" । कहकर कच ने मृत संजीवनी विद्या के मंत्रों का उच्चारण करना प्रारंभ कर दिया । मृत संजीवनी विद्या के प्रभाव से शुक्राचार्य जीवित हो गये । कच उनके चरणों में लेट गया । शुक्राचार्य ने कच को उठाकर उसे अपने सीने से लगा लिया । देवयानी की प्रसन्नता का कोई ठिकाना नहीं था । देवयानी का प्रेम और उसकी हठ ने कच को पुन: नया जीवन दे दिया था । 

श्री हरि 
18.7 23 

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4 Comments

madhura

16-Aug-2023 09:33 PM

Beautiful

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Babita patel

16-Aug-2023 04:54 PM

Good

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Gunjan Kamal

19-Jul-2023 03:40 AM

👌👏

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Hari Shanker Goyal "Hari"

19-Jul-2023 03:44 PM

🙏🙏

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